Tuesday 31 March 2015

बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं

बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं



















जो दोस्त हो इस जिन्दगी की शान, मांगता हुं
इक जिन्दा-दिली का मीठा पान मांगता हुं
बेजान सी जिन्दगी जी रहा हुं तेरी दुनिया मे
जिन्दा तो हुं, पर जिन्दगी मे जान मांगता हुं

बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं  …………………….

जो जचेगा सिर्फ मुझपे वो परिधान मांगता हूं
अपनी ही ए-खुदा असली पहचान मांगता हुं
सच्चे दोस्त मांगना भी छोड दुंगा मै तुझसे,
बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं

बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं  ………………………

काम आये राष्ट्र के, निज हाथो को वो काम मांगता हुं
गौरव, वैभव, ज्ञान का ये राष्ट्र हो धाम मांगता हुं
रघुनंदन के चरणो मे सादर नमन है मेरा लेकिन
न छोडे सीता को बिन-बात वो राम मांगता हुं

बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं  ……………………..

मानव जीवन मे हो खुशहाली, वो सुबह-शाम मांगता हुं
कुछ करे सत्यार्थ, शब्दो के लियें वो नाम मांगता हुं
सच्चाई के लिये समर को रहे तैयार हमेशा ये ही
अपनी कलम के लिये वरदान मांगता हुं

बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं  ………………………..

अपने जीवन मे रष्ट्र प्रेम की मधुर तान मांगता हुं
शमां-ए-वतन पर ये पतंगा हो, कुर्बान मांगता हुं
बिन राजनीति, सच्चे अर्थो मे हो समता वास जहां
बस इक ऐसा ही प्यारा हिन्दुस्तान मांगता हुं


बस आईने के लिए अपने जुबान मांगता हुं  ……………………
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- जितेन्द्र तायल/तायल "जीत"
 मोब. ९४५६५९०१२०

9 comments:

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    1. wha2 tayal ji kya khube likha hai .......keep it up


      Anita Singh

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  2. रघुनंदन के चरणो मे सादर नमन है मेरा लेकिन
    न छोडे सीता को बिन-बात वो राम मांगता हुं..
    बहुत खूब, तायल जी.

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    1. उत्साहवर्धन के लिये सादर आभार

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  3. ज्योति जी से पूर्णतया सहमत मुझे भी इन्ही पंक्तियों ने बहुत प्रभावित किया। सुन्दर कृति। बधाई।

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  4. खूबसूरत कविता।

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